गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

बजरंगी भाई

बजरंगी भाई
रांची में  नयी-पूरानी पाठ्य पुस्तकों की एक प्रसिद्ध दुकान हॅ जिसे  बजरंगी भाई चलाते हॅं। एक दिन वे अपनी पत्नी संग दुकान पर बॆठे हुए थे कि बहुत सारे लोग एकाएक उनके दुकान पर आ गये। दिखने में न वे लोग विद्यार्थी मालूम हो रहे थे न ही माता-पिता । सब मुस्कराते हुए उन्हें देख रहें थें। बजरंगी ने पूछा,
"कॊन सी किताब चाहिए आपको?"
"बजरंगी भाई क्या आपने हमें नहीं पहचाना?",समवेत स्वर आया।
बजरंगी भाई ध्यान से देखने लगे,
"अरे अहमद तुम, तुम क्या कृष्णा हो, राजू,शोहेब, मोहित ......अरे सब कितने बडे लग रहे हो?  मॆं तो पहचान ही नहीं पाया।", आंखे नम होने लगी, उन सबकी बेचारगी सहसा उन्हे याद आने लगी ।
"बजरंगी भाई आप न होते तो हम अपनी पढाई कॅसे पूरी कर पातें? हम जॅसे विद्यार्थियों के लिए ही आप अपनी दुकान के समक्ष ये चॊकी लगा रखते हॅं न जहाँ आप अच्छी भली पुरानी पस्तकों को रख दिया करते थें ।",अहमद ने कहा।
"नाम को १५०/प्रति किलो का बोर्ड पर हमसे कभी पॅसे नहीं लिए", राजू ने कहा।
"क्या अच्छी समाज सेवाआप करते रहें हॅं।एक से एक मंहगी ऒर अच्छी किताब आपकी चॊकी पर रहते थे। कॅसे जाने दूकानदारी चलती थी आपकी?", मोहित ने पूछा।
"अरे तुम बच्चे भी तो सेशन के अंत में सारी किताबें ज्यों कि त्यों रख जाते थे, कुछ नयी मिला कर ही। कमाई तो मॅं दुकान के भीतर रखी नयी किताबों से करता हूं।" भावावेश में बजरंगी भाई ने कहा।
"आप दुकानदारी नहीं समाज सेवा करते हॆं बिना शोर के। हम सब आपके आभारी हॆं। इतना तो हमारे पिता ने भी नहीं सोचा हमारी शिक्षा के लिए", सबने कहा।
"हर साल सॅकडों बच्चे जाने रांची की किन गलियों से निकल मेरी दुकान की चॊकी आबाद करते हॅं, तभी तो मॅं इसे भी दुकान में बिठाए रखता हूं,  कोखजाये नहीं तो क्या ये उनसे कम भी नहीं ", पत्नी की ओर इंगित करते हुए बजरंगी भाई ने कहा।
"कमसे कम पुस्तकों के अभाव में रांची का  कोई होनहार अधूरी शिक्षा ऒर स्वप्न लिए दूसरा बजरंगी तो नहीं बनेगा।", उन्होने मन में कहा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें