गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

रौनकें ज़िन्दगी




रौनकें  ज़िन्दगी
अहा! आज कितनी चहल-पहल है. मेरा प्रांगण मेरे बच्चों की मौजूदगी और उनकी  खिलखिलाहटों से आह्लादित है. अरे, अंजू भी आई है और साथ में अपने बच्चों को भी लाई है. शंकर, मोहन, सोहन, छोटू, मुन्नू, पप्पू सभी दल-ब-दल साथ आयें हैं. वो देखो, बूढ़े रामदीन से रहा न गया तो लाठी टेकते आ ही गया मेरे आँगन में बच्चों से मिलने, जबकि हर दिन की तरह सुबह मेरे चक्कर लगा कर गया ही था. कितना मनोरम और मनोहारी दृश्य है.  नीला-पीला-लाल गुलाबी नए कपड़ों में सजे-धजे सब कितने अच्छे लग रहें हैं. नौ दिनों से दूर कहीं पूजा पंडाल से आ रही आवाजों को सुन रहा था. मैं भी इन्तेजार कर रहा था कि दसवें दिन सबको मेरे पास ही आना होगा. आखिर इतना बड़ा आँगन और किसी के पास कहाँ है. कहा जाए तो चहल पहल तो कल से ही शुरू हो गयी थी. जब राम लीला वाले यहाँ रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतले बनाना शुरू किया था. साथ ही साथ चाट, पकौड़ी, खिलौनों और चूड़ियों की दुकाने भी कल से सजने लगीं थीं. मैं भी पलक-पांवड़े बिछा, सुबह हुई हलकी बारिश में नहा कर साफ़-सुथरा हो सब के इन्तेजार में सड़क ताकने लगा था.
         आज दोपहर बाद से ही भीड़ जुटने लगी. कोई छोटा बच्चा अपने पिता के कंधे पर बैठा रावण-दहन देखने आया था. तो कोई अपनी बूढी माई को हाथ पकड़ मेला घुमाने. मेरे चारों तरह रौनकें ही रौनकें हैं. शायद ये त्यौहार ही हैं जो हमारी रोजमर्रा की एकरसता को तोड़ विविध रंग भरतें हैं जीवन में. इस पल को मैं जी लेना चाहता हूँ, किसी बुजुर्ग के लिए अपने अपनों की उपस्तिथि ही संजीवनी मात्र है. अपने बच्चों की किलकारियां मानस में संजो लेना चाहता हूँ. थोड़ी देर में पुतलों में आग लगने के साथ ही  जोरों के धमाकें होंगे. सब इस साल आखिरी बार मेरे आँगन में तालियाँ और सीटी बजायेंगे. ढलती सूरज के संग जब रावण धूल-धूआं हो चुका होगा, सब लोग धीरे धीरे अपने अपने घरों को प्रस्थान कर जायेंगे.
    मैं मैदान के कोने में खड़ा 'बूढ़ा - बरगद' फिर घिर जाऊंगा अकेलेपन और सूनेपन की कालिमा में. कल ना ये बाज़ार होगा ना मेला ना ये रौनकें,  होंगी तो सिर्फ धूल उडाती मेरी तन्हाइयां.  मैं 'बूढ़ा बरगद' फिर हिसाब लगाने लगूंगा अगले दशहरे का और सोचूंगा कि यदि जीवित रहा तो सबसे फिर मुलाकात होगी.












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