गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

लघु कथा - ( 2) स्किजोफ्रेनिआ

स्किजोफ्रेनिआ
 मालूम तो था ही एक को पहले जाना है। जवानी में पहले जाने वाली प्रार्थना बुढ़ापे तक खुदगर्जी लगने लगी। उनकी निर्भरता देख महसूस होने लगा कि मेरे बिना कितनी मुश्किलों का भरा जीवन होगा इनका। कुछ और भले ना सुना होगा ईश्वर ने पर मेरी ये बात सुन ली उसने। ये ही पहले गएँ। अब तो कुछ करने को ही नहीं था।  मैं आँखे बंद कर ध्यान लगाने जैसा बैठ महसूस करती कि ये बगल के कमरे में हैं ,शायद दराज खींचा हैं। वर्षों बरस साथ रहते वे आदत हैं। मैं महसूस करती कि उन्होंने कुछ कहा ,कभी कभी बेख्याली में कुछ बोल भी देती। बातें भी तो हमारी गिनती की होतीं थी ,खुद ब खुद लफ्ज फिसल जातें। मुझे पूरा अहसास होता कि मैं आभासी दुनिया में जी रहीं हूँ पर लगातार दुखी बने रहने के बनिस्पत ये कुछ राहत भरा माहौल था। 
     आज बच्चे मुझे जबरदस्ती मनोचिकित्सक के पास लेकर आएं हैं। मैं चुप ताक रहीं हूँ कि क्या बोलूं ?


( चित्र साभार -गूगल )





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें