शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

आस भरी नजरों का सफर कथादेश २




आस भरी नजरों का सफर
लघुकथा

      एक बहुत बडी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नये कर्मचरियों की भर्ती प्रक्रिया चल रही थी। मोहित के हाथ में अन्तिम प्रतिभागी की रिज्यूमे थी। सबसे हट कर होने के चलते उसे अंत में बुलाया गया था।

"क्या मैं अंदर आ सकती हूँ? ", नीलम नामक उस प्रतियोगी ने शालीनता से आज्ञा मांगी।

"आप की बायोडाटा तो बहुत ही आकर्षक है, बिल्कुल हमारी मांग मुताबिक। बस आपकी स्कूली शिक्षा की कोई जानकारी नहीं है", मोहित ने पूछा।

"दरअसल सर मैं स्कूल कभी गयी ही नहीं,  मैं ने सीधे दसवीं बोर्ड की परीक्षा को प्राइवेट दिया", नीलम ने सकुचाते हुए कहा।

मोहित व अन्य इंटरव्यू कर्त्ताओं के सवालिया निगाहों को भांपते हुए उसने खुलासा किया,

"मैं बेहद गरीब घर में जन्मी थी, मेरी माँ घरों में बरतन धोती थी और मैं अपनी बहन के साथ कूड़ा बीनती थी। छुटपन में मेरी ललक को भांप मेरी माँ के मालकिन के बच्चे हर दिन शाम को मुझे अपनी किताबों से पढाते। अपनी सुंदर पुस्तकों को छूने देते। बाद में तबादले के कारण वे लोग उस शहर से चले गएँ,  पर शिक्षा के प्रति मेरे मन जो अलख उन्होंने जलाया था उसे मैंने फिर मद्धम नहीं होने दिया। काश ! कि मैं उन्हें बता पाती कि स्वप्नों का जो बीजारोपण मेरे हमउम्र मालिकों ने किया था आज एक वृक्ष बन चुका है।
प्रश्नों के दौर चलते रहे, आखिर. ...

"मिस नीलम, आप सफल रहीं, बधाई", एक इन्टरव्यू कर्त्ता ने कहा।
.
 ..और मोहित आत्म विश्वास से लबरेज नीलम को पहचान सूकून अनुभव कर रहा था।  आखिर उस आस भरी ललचाई नजरों का सफर पूरा हो चुका था जिनसे वह बचपन  में हर सुबह टकराता था स्कूल जाते वक्त।
मौलिक व् अप्रकाशित
द्वारा,
RITA GUPTA
204 B, Koylavihar Sanskriti Appartment
Near Gandhinagar Gate, Kanke Road
RANCHI, 834008, Jharkhand
phone no 7987031630, 9575464852
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रविवार, 26 फ़रवरी 2017

'सती'

छोटी बहन की शादी थी। माँ-पापा का उत्साह देखने लायक था। कितने महीनों पहले से सब तैयारी में लगे थे। मैं उत्सुकता से सब विध -व्यवहार देख रही थी ,
अच्छा हल्दी ऐसे लगया जाता है, पांच सुहागिनें गीत गाते हुए लगाती हैं।
ओह मड़वा ऐसे गाड़ा जाता है, चाचा ताऊ मिल कर बांस लगाते हैं मंगलाचार के साथ।

मैंने जिंदगी में ये सब नहीं पाया, ये भी तो एक सुख है। विजातीय से अपने विवाह के निर्णय ने मुझसे कितना कुछ छीना, कितना अकेला कर दिया मुझे.  वर्षो बाद आज घर आने की स्वीकृति मिली थी परन्तु  वह भी अकेले। सबसे मिलने की ख़ुशी में मैं सुधाकर के बिना  ही चली आई थी। बारात दरवाजे लगी सभी महिलाएं परिछावन के लिए  मंगल गीत गाते बढ़ी,

"अरे मैं भी तो सुहागिन हूँ दूल्हे की परिछावन तो मैं भी करुँगी", सोचती मैं हुलस कर आगे बढ़ने लगी  कि तभी  माँ ने बाहँ पकड़ पीछे धकेलते हुए कहा,

"दूर रह"

 अब मुझे एहसास हुआ कि अछूतों की तरह मुझे किसी विध व्यवहार में शामिल नहीं किया जा रहा है। मैं पीछे हटते गयी ,भीड़ से निकल गयी, 

"कौन हैं ये लोग, मैं कहाँ आ गयीं हूँ?"
सामने मंडप में हवन कुण्ड देख ठिठक गयी और वर्षों पहले पौराणिक कथाओं में मायके में अपमानित शिव -पत्नी 'सती' याद आ गयीं।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

जीवन चक्र- मैं

जीवन चक्र
चित्र आधारित
क्वें क्वें ...
नर्स ने रोते बच्चे को सद्यःप्रसूता के बगल में लिटा दिया. माँ ने उसे छाती से लगा लिया, बच्चा अमृत रसपान करने लगा.
“मैं हूँ ना”, माँ ने मुस्कुराते हुए कहा.
“माँ, मुझे ये चाहिए वो चाहिए .....”
“ये लो मेरे बच्चे”, माँ ने कहा.
“माँ मुझे फीस भरनी है, ये किताब लेनी है....”
“कल तक इंतजाम कर सब देती हूँ, मेरे बच्चे”, माँ ने कहा.
“मुझे तुम्हारे पापा की बहुत याद आ रही है”, माँ ने कहा.
“मैं हूँ ना”, बेटे ने कहा.
“बेटा मेरे सीने में बहुत दर्द है”, माँ ने कहा.
“चलो तुम्हे डॉक्टर के पास ले चलता हूँ”, बेटे ने कहा.
“माँ थोड़ा पानी तो पी लो...”, बेटे ने कहा पर माँ के कंठ में गया ही नहीं.
“माफ़ कीजिये हम आप की माँ को बचा नहीं पाए”, डॉक्टर ने कहा.
“आं-आं ..माँ-माँ, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगा?”, माँ के मृत देह को सीने लगाये बेटा चीत्कार कर उठा.




शनिवार, 17 दिसंबर 2016

एक सुंदरी का पति

एक सुंदरी का पति
(चित्र आधारित कथा)
रम्या ज्यूँ ज्यूँ बढ़ रही थी उसकी खूबसूरती भी दिन दूनी रात चौगुनी हो बढ़ रही थी. उसकी माँ  उसकी खूबसूरती देख चिंतित हो जाती कि कैसे संभाल पायेगी वह इस रूप-राशि को. १८-१९ का होते होते उसके पिता के पास इतने रिश्ते आने लगे कि उन्हें लगा कि शायद यही सही होगा, शादी हो अपने घर-बार लगे तो चिंता मिटे.
शादी हो रम्या कुछ दिन अपने पति रामेश्वर संग ससुराल में रहने के पश्चात् जब शहर उसकी नौकरी पर जाने लगी तो सासु माँ ने टोक दिया,
“देख रमेसर, बहुरिया को संभाल के रखना ऐसा ना हो कि इसका रूप जंजाल बन जाये”.
रामेश्वर के दोस्त यार सब मिलने आयें, परन्तु उनके विस्मित चकित मुद्रा ने रामेश्वर को माँ की बात पर भरोसा दिला दिया. अगल-बगल की महिलाओं ने उसकी दुल्हन देख ठिठोली करते हुए कहा,
“इस कोठरिया में इतना रूप कैसे समाएगा रामेसर बाबू?”
बहुत ही ज्यादा प्यार करता अपनी बहुरिया को, परन्तु दफ्त्तर जाते वक़्त उसे कमरे में बंद कर जाता. गाँव की अल्हड़ मैना शहर में दिन भर काठ के पिंजरे में बंद रहने लगी. शाम ढले जब रामेश्वर आता तब भी उसे कहाँ आजादी, तब ताला भीतर से बंद होता. पहले रम्या को इन्तेजार रहता शाम का, धीरे धीरे रामेश्वर का प्यार चुभने लगा शूल बन. चूड़ी-बिंदी-काजल-आलता सब छोड़ दिया.  कभी अम्मा को याद कर जोर जोर से रोती तो कभी कोई भूला बिसरा गीत उसी क्रंदन स्वर से सुर मिला लेती........बीती बातें याद आती लगातार याद आती रहती,
" काश ! कि इतना रूप ना मिला होता", रम्या सोचती ....
उस दिन रामेश्वर घर आया तो दरवाजे पर मोहल्ले के शोहदों को देखा जो बारी बारी एक सूराख से झांक रहें थे, उसे देखते सब तितर बितर हो गए. अंदर बेखबर मैना कोई गीत गा रही थी या रों रही थी पर खुद में मशगूल और आत्मलीन थी. चुभ गयी रामेश्वर को उसकी बेरुखी,
“मेरे पीठ पीछे यहाँ किसे गीत सुना रिझाया जा रहा है?”, मृत प्राय रम्या में ये लांछन अंतिम बार जीवन संचार कर गयी.
उस रात काठ का द्वार तो बंद रहा पर एक मैना अपने शरीर को छोड़ आज़ाद हो चुकी थी. रामेश्वर कंचन काया ले हतप्रभ हो अपना सर पटकते रह गया.





शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

१६ दिसम्बर
  सुदूर कस्बे से आई वह लड़की, अपने संग अरमानों और स्वप्नों की गठरी ले कर आई थी. महानगर में सुलभ संभावनाओं के विस्तृत आकाश ने उसके और उसके परिवार की मह्त्वाकांछाओं की तस्वीर में सुनहरी किरण लगा दिया था. खेत बेच पिता अपने भविष्य की किश्तों को भर रहा था और इस तरह एक बेटी पढ़ रही थी बढ़ रही थी.
 उस दिन सांझ ने समय पूर्व ही सन्नाटे की चादर को ओढ़ लिया था, शायद आने वाले शोर की तैयारी में. अपने मित्र संग फिल्म से लौटती लड़की को जब एक बस में आगे का सफ़र तय करने का अवसर मिला तो उसने राहत की ही सांस ली कि चलो डरावने ऑटो वाले से भला ही हुआ, क्यूंकि कुछ लोग भी जो थे उसमें. पर वह सफ़र अधूरा ही रहा.....
बस में इंसान नहीं थे ही नहीं, वे तो पाशविक प्रवित्तियों से लैस कुछ विकृत मानसिकता वाले, इंसान से दीखते जीव थे. आगे का सफ़र कुकृत्य और जुल्म की पराकाष्ठा की मिसाल थी. वह पुल जिस पर बस दौड़ रही थी वह उन आर्तनाद चीखों से तड़प अपने खंबे उखाड़ने को तत्पर हो उठी कि कुकर्म थम जाएँ. मित्र सहित लड़की को उस महानगर में बीच सड़क पर मरणासन्न और नग्न अवस्था में फ़ेंक दिया गया. अट्टालिकाओं के पत्थर पसीज गए, सड़क के कोलतार द्रवित हो पिघल उठा. पर नहीं पसीजा तो सड़क पर इंसानों का मुखौटा लगाये लोगों के अंदर छुपी सहृदयता.

 हिंदी फिल्मों में देर आती हुई पुलिस की तरह फिर सब कुछ हुआ. इलाज, धरना, प्रदर्शन, रोष ......पर सब लकीर पीटने सा ही साबित हुआ. महानगर की खूबसूरती धीरे धीरे नेपथ्य में चली गयी. पूरे देश ने वहां की नदियों में बहती इंसानियत के खून को देखा. बदबूदार नाले में परिवर्तित होता महानगर लचर कानून व्यवस्था और अन्याय के पोषक तत्व से समृद्ध होता गया. दामिनी-निर्भया सिर्फ एक नाम बन इतिहास में दर्ज हो गएँ.


शनिवार, 26 नवंबर 2016

क्या ये लातों के भूत हैं, बातों से सचमुच नहीं समझेंगे ?

क्या ये लातों के भूत हैं, बातों से सचमुच नहीं समझेंगे ?
हर दिन की ही तरह मैं आज भी अपनी शाम की वाक पर गयी थी. इलाके में आवारा कुत्तों का साम्राज्य है सो मैं एक छोटा सा मोटा डंडा हाथ में ले निकलती हूँ ताकि यदि कुत्ते पास आयें तो बचाव कर सकूँ. मुझे आवारा कुत्तों से बेहद डर लगता है, ना जाने किधर से आ काट खाएं, सो अपनी हिम्मत हेतु इसे हथियार बना साथ रखती हूँ. संजोग से आज तक उपयोग करने की जरूरत ही नहीं पड़ी, शायद डंडा देख वे पास ही नहीं आतें.
पडोसी की बेटी भी हर दिन की ही तरह उसी वक़्त निकली और दौड़ती हुई मुझसे आगे निकल गयी. दौड़ती हुई वह फोन पर किसी से बातें करती जा रही थी सो उसने ध्यान नहीं दिया कि मोटरसाइकिल पर बैठे दो लड़के उसे कुछ बोलते हुए घूरते जा रहें हैं, पीछे मुड़-मुड़ कर. मैं पीछे से देख रही थी, सच जी में यही आया कि काश इनकी बाइक उलट जाए. साथ ही ध्यान आया कि यदि इन्हें कुछ होगा तो इनके माता-पिता पर क्या गुजरेगी. कुछ ही देर में पडोसी की बच्ची दौड़ती हुई मुझसे आगे निकल गयी.
 जाने क्यूँ कुछ सही नहीं लगा और मैं भी उसके पीछे तेजी से जाने लगी. साफ-सुथरे सुंदर से उस सड़क पर जो हमारी कालोनी के पास ही है. जहां हम रोज निकलते हैं टहलने. देख रहीं हूँ कि बच्ची घबराई सी इधर उधर हो रही और मोटी मोटी गालियाँ निकालती चीख रही है और वे दोनों बाइक सवार उसके चारों तरफ घेरे बनाते हुए विभत्स्य सी अश्लील भाव लिए गोल गोल घूम रहें हैं. एक बारगी मैं सिहर गयी, ठंडी सांध्य में पसीने की बूँदें गर्दन की शिराओं से पूरे रीढ़ तक अचानक बह निकली. मैंने दूर से ही चीखा, कि क्या कर रहे हो?
पर शायद उन्हें मैं दिखी भी नहीं, या अनसुना किया. अब वे उसको छूने लगें थें. अचानक डंडे का ध्यान आया और मैंने जोर लगा उनकी तरफ चला दिया. संजोग ही था कि वह सीधे एक के सर पर जा लगा और वह बाइक सहित सड़क पर गिर पड़ा. तब तक पडोसी की बेटी उनके घेरे से आज़ाद हो वापस भागने लगी. दोनों हडबडा कर उठें और बाइक उठा भाग गएँ.
 लड़की आंटी बोल मुझसे लिपट गयी और बोलने लगी अब मैं टहलने नहीं निकलूंगी. मैं सिर्फ उसके हौसले को बढाने के लिए, उसे ये जताने के लिए कि कोई बड़ी वाकया नहीं हुई है, मैं अपनी वाक पूरी करने आगे बढ़ गयी. पर लौटती बच्ची को फिर देर तक देखती सोच रही थी कि आज जाने क्या हो जाता. सच कहूँ डर मुझे भी लगने लगा था कि कहीं वे लोग वापस ना आ जाएँ, और लोगो को ले कर ना जाएँ. मैंने अपने डंडे को उठाया, सिरे पर ताज़ा लहू चमक रहा था. आखिर कुत्तों को ही भगाने के काम आया.
 ये मानसिकता कितनी ख़राब है कि यदि कोई अकेली लड़की दिख जाए तो लड़के कुछ भी कर सकतें हैं. चुहलबाजी, छेड़खानी या फिर जो मूड आ जाये. जाने कौन होतें हैं ये लडकें जो सड़कों पर बत्तमीजी करना अपना हक समझतें हैं. क्या इनका घर-परिवार नहीं होता. मनुष्यता की भीड़ से अचानक हिंसक पशु में तब्दील होने वाले ये नर पिशाच वाकई मनुष्यता की बोली नहीं समझतें हैं. इनकी सोच पर पड़े पत्थर को, पत्थर से ही मार तोड़ना होगा. जहां दिखे जो दिखे ऐसी छोटी सी भी पाशविक प्रवित्तियों की ओर उन्मुख होते उसे तुरंत ही कुचलने की अत्यावश्यक है. जब बात नारी अस्मिता की आये तो माँ को भी अपने लाडले के प्रति mother इंडिया ही बनना होगा. लडकियां/ औरतें जिक्र करें कि उनके साथ क्या हुआ, अपने भाई-चाचा-ताऊ सबको बताएं कि कितना बुरा एहसास हुआ जब किसी ने सड़क पर छेड़खानी किया. मानवता के दुसरे छोर पर बैठें पुरूषों को शुरू से ये एहसास जागृत होने चाहिए कि उस सिरे पर बैठी निरीह सी दिखती स्त्री सिर्फ भोग्या नहीं है.
मुझसे शायद आज गलती हुई. मुझे थाने  में जा शिकायत करनी चाहिए थी. कल सुबह ही जाती हूँ.
 रीता गुप्ता 

शनिवार, 19 नवंबर 2016

आधुनिक युग के शिखंडी और भीष्म पितामह कौन हैं

आधुनिक युग के शिखंडी और भीष्म पितामह कौन हैं
खबर तो कई दिनों से आ ही रही थी कि दो हज़ार के नए नोट आने वालें हैं साथ ही बीस, पचास और सौ रूपयों की सिक्कों की भी बातें हो रहीं थी. whatsapp और फेसबुक पर खूब फोटो भी शेयर हो रहे थें. लोगो ने इन बातों को भी वैसे ही लिया जैसे कालांतर में जन-धन योजना को. एक-ढेड वर्ष पहले जब प्रधान मंत्री हर तरीके से चिल्ला रहें थें कि बैंक में खाता खुलवा लीजिये. तब भी लोग सिर्फ मुफ्त मलाई चाटने  की ही कल्पना कर रहें थें. फिर भी बड़े पैमाने पर, चाहे किसी लालच में ही खाते खुलें. फिर आया काले धन को डिक्लेअर करने का आग्रह, बहुत लोगो ने किया भी. कुछ बड़ा सा आकडा उसका भी है. पर ऐसे कई लोग अभी भी थे जो गीदड़ भभकी समझ इसे भी हलके से ही लिया. वे वही लोग हैं जो अपनी कमाई को सरकार से छिपातें रहें हैं और नोटों के बिस्तर पर सोतें रहें हैं.
   भाई नोट की गर्मी बहुत होती है. याद है पंचतंत्र की वह कहानी जिसमे एक चूहा, खूंटी पर टंगे कोट तक उछल जाता है जब तक कि उस के जेब में पैसें थें. जैसे ही किसी ने जेब से पैसे निकाल लिया चूहे की उछाल कम हो गयी.
   टैक्स बचा अपनी अघोषित कमाई की मद में चूर समाज के विभिन्न पदों पर ये पदासीन खुद को भगवान समझने लगें क्यूंकि पैसे को ही ये खुदा समझतें हैं. देश तो बहुत आम सी चीज है, भाई. नियम-कानून ठेंगे पर.
 अब जब इनकी काली कमाई पर सर्जिकल स्ट्राइक हो चुकी है तो अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियों से भरसक कोसेंगें ही. आप चाहें तो भारत के नक़्शे पर चिन्हित कर सकतें हैं कि कहाँ कहां काली कमाई के चोर धन दबाये बैठें हैं. वहीँ से ज्यादा आवाजें और शोरगुल सुनाई दे रही है. एयर कंडीशन टीवी स्टूडियो में आ कर लोग ग्रामीण क्षेत्रों की तकलीफों की बातें कर रहें हैं. मैं रहतीं हूँ, देश के सबसे अनुरुनी भागों में एक छत्तीसगढ़ के वनीय क्षेत्र में. पहले दिन से आज तक, सारे काम यथावत चल रहें हैं. इस बीच बैंक भी गयी नोट भी बदलें पर इतने आराम से कि एक शब्द अविश्वसनीय लगतें हैं शिकायतों का. अरे ग्रामीण परेशान हैं अपनी गरीबी से, हमेशा की तरह न कि सरकार की नोट बंदी से. आज़ादी के इतने सालों में मोबाइल टावरों, डिश टीवी के साथ साथ पोस्ट ऑफिस और बैंकों का भी सघन जाल बना हुआ है सम्पूर्ण देश में. जनसख्याँ के आधार पर इनकी उपस्तिथि है और उनमें पैसों की उपलब्धता भी.
अब क्या आदरणीय बहन जी, खुजलीवाल, या अन्य अप्पू-पप्पू नेता सीधे सीधे ये बोले कि भाई जी आपकी नोट बंदी से ठीक वहीँ का घाव फूटा है जिसे ना दिखाया जा सकता है ना छुपाया.  महाभारत युद्ध के दौरान जैसे अर्जुन ने शिखंडी की आड़ में भीष्म -पितामह पर तीर चलाया था. उसी तरह ये एता – नेता काला बाजारी लोग,  ग्रामीण क्षेत्र, बूढ़े लोग, बीमार लोगो और शादी के घर जैसे बहानों  का शिखंडी खड़ा कर लिया है. और छोड़े जा रहें हैं आरोपों के तीर.
ये वैसे ही बहाने दे रहें हैं जैसे एक ऐड में एक एड्स पीड़ित को उसके बॉस द्वारा निकले जाने पर उसके सहकर्मी दे रहें थें अपने इस्तीफे का कारण.
 पर इस बार तो बहुमत की सरकार है, हमने ही उन्हें चुना है तो उनके फैसलों और निर्णयों की जवाबदेही से हम भाग नहीं सकतें हैं. महाभारत में तो भीष्म पितामह ने धनुष रख घुटना टेक दिया था पर आज इस महाभारत में हम पितामह को धनुष नहीं त्यागने देंगें.
रीता गुप्ता , रायगढ़

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

आहुति

सत्यकाम
( आहुति विशाधारित )


"मिस्टर आलोक, मैंने कई  दिनों पहले ही आपको ठेकेदार रामस्वरूप की फाइल दी थी. आपने अभी तक उसे साइन कर निपटाया क्यूँ नहीं ?" बॉस ने कड़क भाव भंगिमा अख्तियार किये हुए तलब किया.
 सामने की कुर्सी पर बैठा रामस्वरूप खीसें निपोरता, अपनी उपस्तिथि मात्र से कमरें में दमघोंटू बईमानी के रंग प्रलक्षित करता हुआ सा वीभत्स हंसी संग तोंद हिलाते बोल उठा,
"साहब मैंने तो आलोक जी को कई बार मोटे लिफाफे की पेशकश की है पर ये तो मुझे बैठने तक नहीं बोलतें हैं".
"क्यूँ मिस्टर आलोक लगता है इस जगह से आपका मन भर चुका है, बहुत लोग सहर्ष यहाँ आने को उत्सुक हैं", बॉस ने उसी कड़कपन से कहा.
"प..र ...प..र..सर जिस काम को इन्होनें किया ही नहीं है उसके बिल पर मैं कैसे हस्ताक्षर कर दूँ?" आज सत्य हकलाने लगा था.
"साहब लगता है इन्हें पैसे काटते हैं, हें हें....", विभत्सता बेशर्मी से केबिन में विस्तातरित होने लगी.
"सुनो जी हमारा खुद का घर कब होगा? पापा मैं भी स्मार्ट फोन लूँगा. बेटा अब रमा की शादी हो जानी चाहिए.....", बहुत सारे आवाजों की अंधड़ में आलोक अब घिरता जा रहा था. इच्छाओं के शेष नाग फन काढ़ उसकी कलम की नोक पर बैठ गएँ. 'काम हो गएँ फण्ड दे दिया जाये', लिखते हुए हर अक्षर हवन कुंड बन उसके विचारों और सिंद्धांतों की आहुति लेने लगें. सत्यकाम देशभक्त युवा आलोक, अपने ही आदर्शों की हवन प्रज्ज्वलन से कलुषित हो उठा. तभी हस्ताक्षर करती उसकी कलम की नोंक टूट गयी,
"सर मेरा तबादला करवा दें", कहता केबिन से निकल गया. ईमानदारी की घृत और निर्भीकता की हवि ने उसकी अंतरात्मा के साथ साथ पूरे वातावरण को सुरभित कर दिया.

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

लाल अनार- chitr pratoyogita me pratham aayi rachna

लाल अनार
(चित्र आधारित)

 "अरे अपने साथ डिब्बे में ये छठा  कौन है, जिसकी रूप-रंग हमारी जैसी है पर खुशबू हमारी माटी की नहीं है?", डिब्बे में बंद एक लाल अनार ने पूछा.
सुसुप्त पड़े बाकी चार अनार भी जागृत हो उठें और छठे पर टूट पड़े. अब तक चुपचाप सा बैठा छठा  लाल अनार अट्टहास कर उठा,
"हाहा मैं हूँ तुमसब का उद्धारक,  तुच्छ बेफकूफ पटाखे मैं तुम सब का बाप हूँ, मैं 'टाइम बम' हूँ. मेरे आका ने मुझे बेहद सावधानी से तैयार किया  है और बड़ी ही चतुराई से तुमसब के बीच बैठा दिया है. अभी इस स्कूल में  बच्चों के बीच ये संस्था वाले  पटाखे बांटेगी. ठीक आधे घंटें के अंदर मैं अपना काम कर चुका हूँगा. कल  त्यौहार के दिन तुम्हारे देश में मैं मातम का माहौल बना दूंगा, हाहा....",कहता वह आँखे मींज तूफान के पहले की शांति  के आनंद भाव में आ गया.
पाँचों लाल अनार सहम कर दुबक गए, पहले ने थोड़ा कसमसा कर डिब्बे के ढक्कन को उचकाया. देखा सफाई कर्मी समारोह के पहले वहां सफाई कर रही थी. बच्चों ने उस जगह बहुत कचरा जो फैला रखा था. आँखों -आँखों में बातें हुईं और अगले ही क्षण वह दुश्मन  देश का अनार रूपेण टाइम बम कचरे के ऊपर गिरा पड़ा था. बाकि चारों कुछ समझतें उससे पहले पहला अनार ये बोलता नीचे कूद पड़ा कि,
"इसे वक़्त से पहले स्कूल से दूर करना ही होगा, अलविदा दोस्तों जय हिन्द"
सफाई कर्मी घूंघट डालें जल्दी जल्दी कचरे को साफ़ करती स्कूल के बाहर झाड़ू देने लगी. अपनी औकात बराबर वह लाल अनार भी कोशिश कर रहा था कि वह बम किसी की नज़र में ना आये. आधा घंटा बस होने को ही था, उसने स्कूल की तरह देखा शायद आखिरी बच्चा भी स्कूल के अंदर जा चुका था.

"बेफकूफ पटाखे तुम्हे इल्म नहीं तुम क्या कर रहे हो शहादत की राह के दुश्मन. उन बच्चों के मरने के साथ ही मैं शहीद हो जाता, हो सकता था कि तुम्हे भी मेरें साथ जन्नत की हूरें नसीब हो जाती. अब बेकार इस सुनसान राह पर फट मेरी कुर्बानी मिटटी में मिल जाएगी", टाइम बम अब बेबसी से चीख रहा था.
तभी जोर की आवाज आई उस महिला सफाई कर्मी के साथ एक छोटा सा अदना सिपाही भी देश की माटी में मिल चुका था. चुटकी भर देश भक्ति के बारूद से बना उस  लाल अनार ने  शहीद होने से ठीक पहले बच्चों की किलकारियां सुन सुकून की आखरी सांस ले चुका था.


गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

रौनकें ज़िन्दगी




रौनकें  ज़िन्दगी
अहा! आज कितनी चहल-पहल है. मेरा प्रांगण मेरे बच्चों की मौजूदगी और उनकी  खिलखिलाहटों से आह्लादित है. अरे, अंजू भी आई है और साथ में अपने बच्चों को भी लाई है. शंकर, मोहन, सोहन, छोटू, मुन्नू, पप्पू सभी दल-ब-दल साथ आयें हैं. वो देखो, बूढ़े रामदीन से रहा न गया तो लाठी टेकते आ ही गया मेरे आँगन में बच्चों से मिलने, जबकि हर दिन की तरह सुबह मेरे चक्कर लगा कर गया ही था. कितना मनोरम और मनोहारी दृश्य है.  नीला-पीला-लाल गुलाबी नए कपड़ों में सजे-धजे सब कितने अच्छे लग रहें हैं. नौ दिनों से दूर कहीं पूजा पंडाल से आ रही आवाजों को सुन रहा था. मैं भी इन्तेजार कर रहा था कि दसवें दिन सबको मेरे पास ही आना होगा. आखिर इतना बड़ा आँगन और किसी के पास कहाँ है. कहा जाए तो चहल पहल तो कल से ही शुरू हो गयी थी. जब राम लीला वाले यहाँ रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतले बनाना शुरू किया था. साथ ही साथ चाट, पकौड़ी, खिलौनों और चूड़ियों की दुकाने भी कल से सजने लगीं थीं. मैं भी पलक-पांवड़े बिछा, सुबह हुई हलकी बारिश में नहा कर साफ़-सुथरा हो सब के इन्तेजार में सड़क ताकने लगा था.
         आज दोपहर बाद से ही भीड़ जुटने लगी. कोई छोटा बच्चा अपने पिता के कंधे पर बैठा रावण-दहन देखने आया था. तो कोई अपनी बूढी माई को हाथ पकड़ मेला घुमाने. मेरे चारों तरह रौनकें ही रौनकें हैं. शायद ये त्यौहार ही हैं जो हमारी रोजमर्रा की एकरसता को तोड़ विविध रंग भरतें हैं जीवन में. इस पल को मैं जी लेना चाहता हूँ, किसी बुजुर्ग के लिए अपने अपनों की उपस्तिथि ही संजीवनी मात्र है. अपने बच्चों की किलकारियां मानस में संजो लेना चाहता हूँ. थोड़ी देर में पुतलों में आग लगने के साथ ही  जोरों के धमाकें होंगे. सब इस साल आखिरी बार मेरे आँगन में तालियाँ और सीटी बजायेंगे. ढलती सूरज के संग जब रावण धूल-धूआं हो चुका होगा, सब लोग धीरे धीरे अपने अपने घरों को प्रस्थान कर जायेंगे.
    मैं मैदान के कोने में खड़ा 'बूढ़ा - बरगद' फिर घिर जाऊंगा अकेलेपन और सूनेपन की कालिमा में. कल ना ये बाज़ार होगा ना मेला ना ये रौनकें,  होंगी तो सिर्फ धूल उडाती मेरी तन्हाइयां.  मैं 'बूढ़ा बरगद' फिर हिसाब लगाने लगूंगा अगले दशहरे का और सोचूंगा कि यदि जीवित रहा तो सबसे फिर मुलाकात होगी.












बजरंगी भाई

बजरंगी भाई
रांची में  नयी-पूरानी पाठ्य पुस्तकों की एक प्रसिद्ध दुकान हॅ जिसे  बजरंगी भाई चलाते हॅं। एक दिन वे अपनी पत्नी संग दुकान पर बॆठे हुए थे कि बहुत सारे लोग एकाएक उनके दुकान पर आ गये। दिखने में न वे लोग विद्यार्थी मालूम हो रहे थे न ही माता-पिता । सब मुस्कराते हुए उन्हें देख रहें थें। बजरंगी ने पूछा,
"कॊन सी किताब चाहिए आपको?"
"बजरंगी भाई क्या आपने हमें नहीं पहचाना?",समवेत स्वर आया।
बजरंगी भाई ध्यान से देखने लगे,
"अरे अहमद तुम, तुम क्या कृष्णा हो, राजू,शोहेब, मोहित ......अरे सब कितने बडे लग रहे हो?  मॆं तो पहचान ही नहीं पाया।", आंखे नम होने लगी, उन सबकी बेचारगी सहसा उन्हे याद आने लगी ।
"बजरंगी भाई आप न होते तो हम अपनी पढाई कॅसे पूरी कर पातें? हम जॅसे विद्यार्थियों के लिए ही आप अपनी दुकान के समक्ष ये चॊकी लगा रखते हॅं न जहाँ आप अच्छी भली पुरानी पस्तकों को रख दिया करते थें ।",अहमद ने कहा।
"नाम को १५०/प्रति किलो का बोर्ड पर हमसे कभी पॅसे नहीं लिए", राजू ने कहा।
"क्या अच्छी समाज सेवाआप करते रहें हॅं।एक से एक मंहगी ऒर अच्छी किताब आपकी चॊकी पर रहते थे। कॅसे जाने दूकानदारी चलती थी आपकी?", मोहित ने पूछा।
"अरे तुम बच्चे भी तो सेशन के अंत में सारी किताबें ज्यों कि त्यों रख जाते थे, कुछ नयी मिला कर ही। कमाई तो मॅं दुकान के भीतर रखी नयी किताबों से करता हूं।" भावावेश में बजरंगी भाई ने कहा।
"आप दुकानदारी नहीं समाज सेवा करते हॆं बिना शोर के। हम सब आपके आभारी हॆं। इतना तो हमारे पिता ने भी नहीं सोचा हमारी शिक्षा के लिए", सबने कहा।
"हर साल सॅकडों बच्चे जाने रांची की किन गलियों से निकल मेरी दुकान की चॊकी आबाद करते हॅं, तभी तो मॅं इसे भी दुकान में बिठाए रखता हूं,  कोखजाये नहीं तो क्या ये उनसे कम भी नहीं ", पत्नी की ओर इंगित करते हुए बजरंगी भाई ने कहा।
"कमसे कम पुस्तकों के अभाव में रांची का  कोई होनहार अधूरी शिक्षा ऒर स्वप्न लिए दूसरा बजरंगी तो नहीं बनेगा।", उन्होने मन में कहा।

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

सफाई कर्मी

पुण्य-कर्म
(स्वच्छता अभियान विषय अंतर्गत)


    "ओ! कचरे वाले, ओ कचरे ...वाले जरा इधर आना ",
कचरे की बड़ी बड़ी थैलियाँ लिए रेहाना चिल्लाते हुए बुला रही थी. पर सड़क की दूसरी ओर कचरा पेटी साफ़ करता वह व्यक्ति पूरे मनोयोग से सफाई में व्यस्त था.
"ओ कचरा वाले क्या सुनाई नहीं दे रहा? मैं कब से पुकार रही हूँ", रेहाना ने खीजते हुए कहा.
वह व्यक्ति अभी भी अपने काम में व्यस्त था, कचरा, पेटी से ज्यादा बाहर सड़क पर अधिक बिखरा पड़ा था. इस बीच रेहाना, कचरा वाला-कचरा वाला का शोर मचाते रही. कुछ देर बाद उधर की सफाई पूरी कर अपनी कचरा ढोने  वाली साइकिल चलाता हुआ वह रेहाना के दरवाजे पर आया. तब तक रेहाना का पारा पूरा चढ़ चुका था.
"इतनी देर से बुला रहीं हूँ, बहरे हो क्या? रेहाना ने पूछा.
"पर सुनता तब न, जब आप मेरा नाम ले कर बुलाती", उसने कहा.
"बोल तो रहीं थी, कचरा वाला कचरा वाला ......"
"ये तो आप अपना नाम बता रहीं थीं", उसने मुस्कुराते हुए कहा.
"क्या बकबक कर रहे हो?", रेहाना ने चिढते हुए कहा.
"तो फिर क्या कहूँ तुमलोगों को जो हमसे कचरा  ले कर  जातें हो?" फिर अचकचाते हुए उसने सवाल किया.
"आप हमें सफाई-कर्मी कहें, वैसे भी हम आपलोगों की हर तरह की गंदगियों को साफ़ करतें हैं. सिर्फ छिलके या जूठन नहीं बल्कि मानसिक-शारीरिक विकारों को भी, ये देखिये", उसने अपने दोनों हाथ में कुछ दिखाते हुए कहा. कुत्तों के द्वारा नुची एक सद्यःजन्मी बालिका के शव को देख अब रेहाना का सर चकराने लगा.
"सफाई-कर्मी तुम ठीक कहते हो, दरअसल कचरे वालें तो हम हैं . वैसे तुम्हारा नाम क्या है ?" रेहाना के स्वर में अब नरमी थी.
"छोडिये मैडम जी आप सफाई-कर्मी ही कहिये", आँखों में आती नमी को सँभालते हुए  उसने उससे कचरे की थैलियाँ ले ली और और बच्ची के शव के साथ उन्हें अपने साइकिल के साथ लगी कचरे पेटी में डाल अगले घर की तरफ पुण्य-कर्म करने चल दिया.



रविवार, 18 सितंबर 2016

औपचारिकता

औपचारिकता
विषय-  दिखावटी  श्रद्धा 
“आदरणीय रामाशीष जी आपकी कमी मुझे व्यक्तिगत रूप से खलेगी”, पूर्व बॉस श्रीकांत जी कहां.
“रामाशीष जी ने हमेशा मुझे एक छोटे भाई की तरह समझा है”, सहकर्मी रमेश ने कहा.
“हम सदा आपके दिखाए मार्ग पर ही चलेंगे”, जब दूसरे सहकर्मी श्यामनंदन ने ये कहा तो रामाशीष जी ने विद्रूप दृष्टि से उसे देखा.
“आप के जाने से विभाग को जो क्षति होगी उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी”, वित्त विभाग के अफसर ने कहा.

यहाँ के कार्यकाल के अंतिम दिन, रामाशीष जी मंच पर फूल मालाओं से लदे अपने विदाई समारोह में बिखेरे जाने वाले इन दिखावटी श्रद्धा सुमन को बस वैसे ही ग्रहण कर रहें थें जैसे कमल के पत्ते पर पानी की बूँद. अपने पांच वर्षीय कार्यकाल में उन्होंने इस चौकड़ी की एक भी फर्जी कारनामों को सफल नहीं होने दिया था. उनके मन में फूट रहें लड्डुओं का उन्हें खूब अंदाजा हो रहा था. आशीर्वचनों के साथ रामाशीष जी ने वहां से औपचारिक  विदाई लिया और गले में पड़े फूलों के हार के साथ उनके रंग सुगंध विहीन श्रद्धा सुमन को छोड़, अपनी अगली पोस्टिंग की ओर चल पड़ें जहाँ की अफसरों की कारगुजारियों से हाल ही में प्रदेश हिल चुका था. 

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

रिहाई dainik jagram me 23 october 2017

रिहाई
(चित्र आधारित)
माँ के गुजरने के बाद बेटा अपने बाबूजी को हमेशा के लिए अपने साथ रखने महानगर ले कर आ गया था. कुछ दिनों तक मेट्रो, मॉल, पार्क, वाटर किंगडम, अपार्टमेंट में ऊपर नीचे इत्यादि घूमने के बाद उन्होंने अपने बेटे से कहा,
"बेटा, मुझे यहाँ की रहन-सहन देखने के बाद अपने गावं में आई बाढ़ की एक दृश्य की स्मृति हो आई".
"कौन सा दृश्य भला, ऐसा यहाँ क्या देखा जो आपको बाढ़ के दृश्य याद आ गएँ ?", बेटे ने आश्चर्य से पूछा.
"पिछले वर्ष जब भयंकर बाढ़ आई थी तो गावं के कुछ हिस्से छोटे छोटे टापू में मानों बदल गएँ थें. हमारा घर कुछ उंचाई पर था तो डूबने से भले बच गया पर पानी ने कई दिनों तक चारों ओर से घेर हमें बाकी दुनिया से काट एकाकी कर दिया था. आज भी उस वक़्त को याद करता हूँ तो सिहर जाता हूँ ", बाबूजी ने कहा.
बेटा अभी भी इस अजीबो गरीब मेलापक को विस्मयचकित हो सुन रहा था.
"मैंने यहाँ देखा कि इतने बड़े तथाकथित अपार्ट मेंट में ९०-१०० परिवार रहतें हैं. अपने आप में एक गावं जैसी आबादी. पर आपस में मेल जोल या वास्ता बिलकुल नाम मात्र को है. इस भागती दुनिया में सब अपने आप में मानों गुम हैं अपनी - अपनी टापू जैसी जिंदगियों में कैद ", बाबूजी ने कहा तो बेटा सोचने लगा. 
"बाबूजी, आप सही कह रहें अपनी अपनी जिन्दगी में सब परेशान - हैरान से सिमटे हुएं".
"सही, वहां गावं में तो सब एक दुसरे को जानतें हैं, सब एक दुसरे पर निर्भर भी हैं. मैं यहाँ इस महानगरीय द्वीपीय जीवन में खुद को बेहद एकाकी महसूस करता हूँ. सो बेटा गावं हमारा शहर तुम्हारा. अब सब देख लिया, मेरी टिकट करवा दो जाने की", 
बाबूजी ने ऐसा कहा तो बेटे को उनकी बेचैनी साफ़ महसूस हुई जो जल्द से जल्द नौका या सेतु द्वारा इस महानगरीय द्वीपीय जीवन से रिहाई चाहता था|






भैया, मुझे कुछ कहना है



मेरे प्यारे भैया,
             तुम सुखी, स्वस्थ और दीर्घायु हो यही मेरी कामना है. मैं क्या हर बहन अपने भाई के लिए सदैव मंगल कामना ही करती है. भैया बदलें में मैंने सिर्फ तुमसे एक वचन ही चाहा है कि तुम सदैव मेरी रक्षा करोगे. हाँ तुमसे मेरा रक्त सम्बन्ध है, हम एक माँ की संतान हैं. तुम मेरी रक्षा को सदैव तत्पर रहते भी हो. इसके लिए मैं खुद को सौभाग्यशाली मानती भी हूँ.
  पर भैया जब मैं सड़क पर कहीं जा रहीं होती हूँ, कॉलेज से लौट रहीं होती हूँ या देर रात दफ्त्तर से निकलती हूँ तो तुम वहां हमेशा तो नहीं होते हो. वहां मुझे मिलतें हैं वो नर पिशाच जो इन्सान की खाल ओढ़े अबला स्त्रियों की अस्मिता को तार तार करने को बेताब दिखतें हैं. वह भी तो किसी के भाई होते होंगे पर दूसरों की बहनों पर कुदृष्टि डालने का कुकृत्य वे बेख़ौफ़ कर गुजरतें हैं.
  भैया तुम अपनी बहन को सकुशल घर लौट आने पर सुकून की सांस ले निश्चिन्त हो जाते होगे. कई बातें रोज घटतीं हैं जिन्हें मैं हर दिन चुपचाप सह लेतीं हूँ ताकि बात का बतंगड़ ना बनें. तुम परेशां ना हो जाओ. कहीं मेरे पंख ना क़तर दियें जाएँ. कहीं घर परिवार में मैं बदनाम ना हो जाऊं, मैं चुप रह जाती हूँ. जबकि गलती मेरी नहीं होती है. आज मैं तुम्हे इस पत्र के माध्यम से बताना चाहूँगीं कि जब मैं या मेरी जैसी अन्य लडकिया या औरतें बाहर निकलतीं हैं तो किन नज़रों और स्पर्शों का सामना कर वापस लौटतीं हैं. हां, तुम्हे और अन्य सभी बहनों के भाइयों को ये अवश्य जानना चाहिए. हम बहनों का ये अब कर्तव्य हो गया कि तुम भाइयों को हकीकत के आईने से रूबरू करवाया जाये.
    मध्यकालीन युग बीता होगा आप लड़कों के लिए. हमें तो आज भी विवश किया जाता है कि हम घर बैठे और चेहरा ढांक बाहर निकलें, कहीं हमारा रूप-रंग, पहनावा किसी को आकर्षित ना कर दें. पुरुष किसी भी उम्र के हों लड़कियों को देख उनकी काम-भावना जागृत हो जाना क्या नैसर्गिक है? रास्ते, दुकान, स्कूल, कॉलेज, मॉल यहाँ तक कि घर में भी लडकियां सुरक्षित नहीं हैं. मुझे तो इसके मूल में घरों में बचपन से दी जाने वाली संस्कार यूं कहें कुसंस्कार भी एक कारण समझ आता है.
       क्यूंकि हमारी माएं तो बचपन से ही तुम्हे एक श्रेष्ठ भाव से पालतीं हैं, तुम हमेशा से एक गलतफहमी में रहते हो कि चूँकि तुम लड़के हो तो तुम लड़कियों से हर मामले में उच्च हो. पुत्र प्रेम की अधंत्व से ग्रसित माएं चाहें तो बचपन से ही ये संस्कार दे सकतीं हैं कि लड़की और लड़के दोनों  की सम्मान का मोल तराजू पर समभाव रखती है. यदि एक लड़का बचपन से ही अपने परिवार, घर और समाज में स्त्रियों के प्रति आदर और बराबरी के व्यवहार से परिचित रहेगा तो वह कभी राह चलती औरतों पर कामुक और असम्मानीय दृष्टिपात नहीं करेगा.
  भैया, जब मैं घर से निकलती हूँ तो नुक्कड़ पर खड़े मवाली सीटी बजा कुछ अभद्र टिप्पणी अवश्य करतें हैं. जब ऑटो रिक्शा पर बैठती हूँ तो कोई जबरदस्ती चिपक कर बैठने को तत्पर रहेगा. तिस पर ऑटों में तेज बजती निम्न स्तरीय गीत मानों माहौल को दूषित करने को आमादा रहेगा. कहाँ तक गिनाऊं भैया, ज्यादा सुन कहीं तुम दुखी ना हो जाओ. दिन भर जाने-अनजाने कई लिजलिजे स्पर्शों को अनदेखी कर हम अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़तें रहतें हैं. अख़बार और न्यूज़ तो देखते  ही हो भैया, जिनमे कुत्सित पौरुष यौन ग्रंथि से त्रस्त दूधमुहीं बच्ची से ६० वर्षीय वृद्धा का भी जिक्र रहता है. ये कौन सी भड़काऊ कपडे पहने रहतीं हैं या देर रात बाहर घूमतीं हैं ?
  भैया मैं आपको ये कथा-व्यथा इस लिए बयान कर रहीं हूँ ताकि आप दूसरों की बहनों को भी सम्मानीय दृष्टि भाव से देखें. यदि हर भाई ऐसी सोच रखेगा तो हम बहनें कितने सुकून से पल्लवित पुष्पित हो जग में सुरभित होंगे. एक चेतावनी भी देना चाहूंगी इस पत्र के माध्यम से सारे पुरुष जगत को, कि” इतना भी ना सताओ कि डर ही ख़त्म हो जाये.” जब नारी विद्रोहिणी होने लगेगी तो सामाजिक ढांचा चरमराने लगेगा और स्तिथि विस्फोटक हो जाएगी. बेचारगी का चोला अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था को प्राप्त होने को है. दुर्गा-काली-चंडी को सिर्फ हमने पूजा नहीं है बल्कि आत्मसात भी किया है. 
  अत: मैं सम्पूर्ण जगत के भाइयों से यही आश्वासन और राखी बंधाई चाहूंगी कि हमें सम भाव से सम्मानीय रूप से जीने दिया जाये. अपनी कामुक और नीच कुदृष्टि को एक पोटली में बाँध कहीं गहरे मिटटी में दबा आयें, नदियों में भी विसर्जित ना करें वे पहले से ही प्रदूषित हैं. भाई मेरे राखी का इतना मोल तुम जरूर चुकाना. जगत की सम्पूर्ण खुशियाँ तुम्हारे कदम चूमें.
शुभ कामनाओं सहित
तुम्हारी बहन

शनिवार, 2 जुलाई 2016

दिया और तूफ़ान

दिया और तूफ़ान
( चित्र आधारित कथा)

कलयुगी घोड़े पर सवार असत्य, अहंकार और अधर्म, सम्पूर्ण जगत में विस्तारित  हो हर पक्ष को अपने सानिद्ध्य से कलंकित कर अधंकार में लील चुके थे. अचानक घोड़े की रफ़्तार मंद होने लगी, दूर कहीं सत्य, निष्ठा और धर्म का दिया टिमटिमा रहा था. दिए की लपलपाती  लौ  न थरथरा रही थी न मध्यम होती दिख रही थी. खल गयी कलयुग  को उसकी ये हेकड़ी और अहंकार में चूर अधर्म पहुँच गया न्याय की देवी के दरवाजे.
"भला कलयुग में सत्य का क्या काम?", उसने गुहार लगाया  और  दिये  को  न्याय की तराजू में बैठने को मजबूर कर  दिया.
"सम्पूर्ण सृष्टि जब आकंठ कलयुग में समायी हुई है तो फिर सतयुगी प्रतीक का क्या औचित्य, यदि न्यायधीश हैं तो पट्टी हटा मेरे अस्तित्व को चुतौती देने वाले को सजा दें  ?" अधर्मी ने अट्टहास किया.
हताश कलयुग ने देखा छोटा सा दिया पलड़े को झुका उसके अस्तित्व को हल्का करने पर उतारू है. उसने मोह पाश का  जाल बिछाया  और विवश किया कि न्याय की देवी गंधारितत्व को उतार माया ठगनी के समक्ष घुटने टेक दे.
"हे कलयुग कल तक तुम अपने चरम पर अवश्य थे परन्तु समय का पहिया घूम चुका है. सत्ययुग आने को तत्पर है, इस छोटे से दिए से शुरुआत हो चुकी   है जो तुम्हारे  तूफान से भिड़ने का सामर्थ्य रहता  है ",
     न्याय की देवी ने माया मोह के बंधन को ठुकराते हुए कहा तो कलयुग चौंक गया.  एक दिन शनै शनै उसने द्वापर को अपदस्थ  किया था, अब उसकी बारी है. सत्य  की मशाल प्रज्जवलित होने में अब देर नहीं. उसकी अश्व की रफ़्तार मध्यम होने लगी क्यूँ कि सत्य का सूर्योदय अब बस होने को थी.



रविवार, 26 जून 2016

भोर से पहले

भोर से पहले

     पल्लव अपने मोबाइल  पर व्यस्त था कि किसी के द्वारा फॉरवर्ड किए गए  एक विडियो ने उसके होश उड़ा दिए।  जिसमे एक लड़की  किसी होटल के कमरे में शायद , उत्तेजना  और अश्लीलता का समीश्रण लिए भाव-भंगिमा का प्रदर्शन कर रही थी। कोई दो  मिनट के उस विडियो का वह क्षणांश देख ही विचलित हो उठा  बगल के कमरे में उसकी छोटी बहन आज ही किसी होटल में किसी डांस-नृत्य के आयोजन हेतु ऑडिशन देने तत्परता से सुसज्जित हो रही थी।
"क्या हुआ भैया, क्या  मैं ठीक नहीं  लग रही हूँ ?", पल्लवी ने प्रश्न वाचक निगाहों से ताका।
"पल्लवी, मुझे लगता है कि ऑडिशन देने जाने की जगह अगर तुम अगले हफ्ते से शुरू हो रही अपनी बोर्ड की परीक्षा पर ध्यान दो तो ज्यादा उचित होगा", कुछ क्षण सोचते हुए पल्लव ने कहा।
"भैया इतना अच्छा  मौका आया है घर बैठे, सिर्फ कुछ घंटों की  ही बात है, कल ही मेरी सहेली उज्जवला  ने दिया है "।
"मेरी प्यारी  बहना, मैं वादा करता हूँ कि मैं तुम्हे किसी अच्छे संस्थान में नाम लिखवाऊंगा जहां तुम पहले कायदे से नृत्य-नाटिका की शिक्षा ले सको।  अपने शौक को सही आकार देते हुए पूरा कर सकों.। पर पहले प्राइमरी शिक्षा पूरी कर लो",
पल्लव ने उसे प्यार से समझाया। क्या बताता कि उसकी ही दोस्त उज्जवला, की कल की तथाकथित ऑडिशन की विडियो किस रूप प्रसारित और प्रचारित हो रही है।  कामयाबी की भोर से पूर्व ही वह कालिमा में लिपट चुकी है।

सोमवार, 20 जून 2016

जीवन है जीने के लिए-

जीवन है जीने के लिए- आत्महत्या कायरता है

“जिन्दगी” एक  उपहार है जिसे माता-पिता अपने बच्चों को देतें हैं. अपने जीवन के कई महत्वपूर्ण  क्षण -दिन-महीने -साल लोग अपने बच्चों के जीवन सवारने में लगा देतें हैं. ख़ास कर हमारी भारतीय मानसिकता तो यही है. युवा होते होते “It’s my life वाली भावना प्रबल होने लगती है. जीवन भलें अपनी इच्छा अनुसार जियें पर सर्वाधिकार तो माँ-बाप के पास ही सुरक्षित रहता है. उसे समाप्त करने का तो हक ही नहीं है किसी के पास. बहुत ही ज्यादा क्षोभ होता है जब कोई इसे समाप्त करता है असमय. आत्महत्या शायद एक क्षणिक मनोवृत्ति या आवेश होती है, वह क्षण किसी तरह टल जाये तो जीवन जीने हेतु बच जाता है. हर दुःख, अपमान,असफलता,बिछोह, बेवफाई वक़्त के साथ गुजर जाता है. दरसल इस दुनिया में मृत्यु को छोड़ कुछ भी शाश्वत नहीं है. फिर बॉयफ्रेंड – गर्लफ्रेंड या परीक्षा फल  के लिए माता-पिता के अमूल्य निधि को नष्ट करना मूर्खता है. बहुत सारे लोग होंगे जिन्हें कभी न कभी आत्महत्या का ख्याल आया होगा, परन्तु आज अपनी वो सोच कितनी बचकानी महसूस होती होगी उन्हें. 

गुरुवार, 2 जून 2016

ग़लतफ़हमी

मृत्युशैया पर पड़े महापंडित रावण ने विभीषण की तरफ घृणा से देखते हुए कहा,
"कुलघाती तुमने दुश्मन के साथ षड्यंत्र रच मुझे धराशाही कर दिया".
" भैया मैंने सिर्फ अपना फर्ज निभाया है",
 स्वर्ण नगरी का भावी अधिपति ने  विनम्रता से करबद्ध उत्तर दिया.

"रे कुल नाशक, आने  वाली पीढ़ियाँ  तुम्हे माफ़ नहीं करेगी और अपने पुत्र का नाम कभी कोई विभीषण नहीं रखेगा",
यमद्वार उन्मुख दशानन ने अनुज को कोसते हुए कहा.

"मैंने देश हित में श्री राम से संधि किया न कि  षड्यंत्र रचा.  मुझे कुल नाशक सुनना मंजूर है पर "देश-द्रोही" कदापि नहीं. मैंने भाई-भतीजावाद से परे देशहित का सोचा. मेरा देश अक्षुण रह गया और देवाशीष पा अमरत्व भी पा गया ",

सजल नयनों से विभीषण ने  अपनी आखरी सफाई देनी चाही परन्तु तब तक स्वार्थ और अहंकार ने महापंडित की सारी पंडिताई को  धता बताते हुए प्राणों का हरण कर लिया था.  अग्रज की निष्प्राण-ठठरी सन्मुख  विभीषण किमकर्तव्यविमूढ़ हो काल की गति समक्ष  अबूझ ही रह गए.

 विचार मौलिक और अप्रकाशित
साभार रामायण


सोमवार, 23 मई 2016

भस्म होतें अरमान

 भस्म होतें अरमान
( तापमान विषय आधारित )
अक्षिता पसीने से तरबतर घर लौटी. अम्मा ने तुरंत बर्फ डली शरबत का गिलास पकड़ाया. गला तर करना अभी शुरू ही किया था कि उसका बड़ा भाई अक्षित हांफता हुआ कमरे में प्रवेश किया.
“आ गया तू भी रूक मैं तुम्हारे लिए भी शरबत लाती हूँ”, कहते अम्मा उठने लगीं.
“पहले पूछ दफ्तर के बाद ये किसके साथ गुलछर्रे उड़ा रही थी? मेरे दोस्त ने खुद अपनी आँखों से कैफ़ेटेरिया में इसे देखा है. उसके साथ सेल्फी ली जा रही थी. जानती हो अम्मा वह लड़का उस मोहल्ले का है.” अक्षित की आँखे मानों अंगारे उगल रही थी.
अभी तक चुपचाप से पेपर पढ़ते बाउजी में भी मानों करंट दौड़ गया, अम्मा की हाथ से शरबत का गिलास छूट गिर पड़ा. कमरे का तापमान अचानक अपनी चरम पर पहुँच गया.”उस मोहल्ले” ने अचानक सनसनी फैला दी. एक पल को लगा कमरें में सबके सर फट जायेंगे कि अम्मा बोल पड़ी,
“ बड़ा आया दोस्त की बातों में आने वाला, मुझे तो अक्षिता ने आते ही बताया था कि वह अपने नए बॉस के साथ कैफ़ेटेरिया गयी थी. साथ में इसकी और सहेलियां भी थी, यही बताया था ना ?” बोलती हुई अम्मा अक्षिता की तरफ सवालिया निगाहों से घूमी.
“जी जी ....” हक़लाती अक्षिता ने सर हिलाया. अचानक कमरे का तापमान सामान्य हो गया, पंचायत के दोनों सदस्य अपनी खाप वाली भूमिका से भाई और बाप की भूमिका में आ गए.
परन्तु अम्मा के माथे के बल और गहरा गएँ और इसे सिर्फ अक्षिता ने देखा. आज तो काठ की हांड़ी में खिचड़ी गल गयी थी पर यक्ष-प्रश्न था आगे क्या उसे भी बुआ की तरह इनकी लहकती क्रोधाग्नि में भस्म होना होगा. गले के पीछे से अचानक पसीने  की एक धार  बह निकली और  रीढ़ में सनसनी सी कर दिया .
“आज रात कोई निर्णय ले ही लेना होगा”,  सोचती हुई अक्षिता ने एसी चला दिया.



रविवार, 8 मई 2016

रीता ममता

रीता ममता
(चित्र प्रतियोगिता हेतु )
सद्यः प्रसूता  लक्ष्मी ने बड़े कष्ट से बच्चे को जन्म दिया था .बच्चा तो पूर्णतया स्वस्थ हुआ परन्तु लक्ष्मी अपने बच्चे को वह देने में पूर्णतया असमर्थ हो गयी जिस पर एक बच्चे का पहला हक होता ,माँ का दुग्धपान. इस खातिर घर में बकरी पाली गयी,जिसके दूध को बोतल में भर मुन्ने को पिलाया जाता .लक्ष्मी के दिल से इस बात  की कसक जाती ही नहीं थी .उसे अपना होना ही निरर्थक लगता .
    उसदिन कमरे में  बकरी का बच्चा अपनी माँ का स्तनपान कर रहा था ,भूख से बिलबिलाता मुन्ना कौतुहलवश अपनी भूख भूल ,घिसटने की कोशिश करते हुए उन्हें देखने लगा . बकरी के बच्चे का ही तो पहला हक होता है उस की माँ के दूध पर .लक्ष्मी का दिल रो पड़ा अपनी बेजारी पर  .उसे लगा ठन्डे चूल्हे के पास औंधी रखी बटलोही शायद उसकी ही प्रतिबिम्ब है, दोनों ही रीते ।


शुक्रवार, 6 मई 2016

मातृ भाव धर्म

मातृ भाव धर्म
(चित्र आधारित)

धरती का वह एक कोना, जिससे हर शै रूठ गयी थी. बादल, वर्षा, छावं , नमी मानों इधर का रास्ता भूल चुके थे. लगातार चौथे बरस अनाकाल झेल रहा वह अभागा भूभाग अब बस अपनी अस्तित्व की आखरी लड़ाई लड़ रहा था. गाँव के अधिकाँश पुरुष आकाल ग्रस्त ग्राम को छोड़ रोजी-रोटी की तलाश में दूर कहीं भटकने को मजबूर थें. भयंकर दुर्भिक्ष झेल रहे उस ग्राम में शेष थीं तो औरतें, बच्चे, बूढ़े, विकलांग या फिर रोगी. पशु-पक्षी तक अपना चोला बदल स्थान त्याग चुके थे. सद्यःप्रसवा कमली निढाल पड़ी गोद के बच्चे को सूखे तन से लगा शायद दुग्धपान का छलावा दे जीवित रखने अंतिम प्रयास कर रही थी. गर्भावस्था के अंतिम चरण में उसका पति भी पानी- वर्षा, हरियाली- खुशहाली की तरह उसके जीवन और गाँव से चम्पत हो चुका था. पर वह तो एक माँ है, वह रक्त की अंतिम बूँद से भी अपने लाल को जीवित रखने का प्रयास करेगी. जैसे धरती माँ इस बुभुक्षित ग्राम के अभागों- अनाथों की रक्षा उस कुएँ के रूप में कर रही है. जिस प्रकार  उसका शिशु उसके तन से जीवन रस ग्रहण करने हेतु चिपटा हुआ है उसी प्रकार क्षुधातुर नर-नारी कुँए की जगत से सट जीवन रस जल का दोहन कर प्राण रक्षा कर रहें हैं. प्रकृति का हर भाव अपना स्वरुप समयनुसार बदल सकता है सिवाय मातृ भाव के और शायद इसी भाव पर सृष्टि टिकी हुई है.